इक और लम्हा बीत गया आपके इंतज़ार में,
अश्कों के मोती छलके मेरी आंखों से,
इक पल गुज़रता है यूँ एक बरस के जैसे,
अब तो लगता है इक ज़माना बीत गया आपके प्यार में...
इन खुली बाँहों में समा जाते आप मोम से पिघलकर,
आंखों में अपनी वफ़ा का समंदर समेटे हुए,
होंठ जो सिल जाते हमारे, फिर रूह कहाँ जुदा होती,
तमाम उम्र गुजार देते बंदगी में, आपको अपना खुदा मानकर...
राह देखता हूँ अब मैं, आ जाओ आप कभी कहीं से,
सूख गई है अब ये आँखें, होता नही दर्द का एहसास,
खुदा की नाराज़गी का आलम तो देखो,
न हो हमें खुशी का एहसास, तो आप जैसी रूह न डाली कहीं किसी में...
प्यार हो हमारा मिटटी के दो हिस्सों जैसा, इक मैं और इक तुम,
दोनों मुजस्समों को तोड़ के फिर ऐसे जोड़ दो,
तुम में कुछ मैं रह जाऊं,
मुझ में कुछ तुम रह जाओ...
-नीरज
2 comments:
Kya baat hai....tum to ek dum proffesional shaayar baan gaaye ho...aur itni udaas shaayari kyo...issme thode raang bhi bhaar do
I don't believe this! yeah tumne likha hai?
toooooo gud!
sahi ja rahe ho! Cancerian ke saare gun hai!!! ;)
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